बुधवार, 21 दिसंबर 2011

ना जाने ये उजाले..


अभी तो तड़प तड़प के रात की तनहाइयों से निकला हूँ ,
न जाने दिन के उजाले कितना और रुलाएंगे
काटने को दोड़ती हैं खामोशियाँ
ना जाने ये उजाले कितना और जलाएंगे


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3 प्रतिक्रियाएँ:

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