इक चेहरे के पीछे, कई चेहरे हैं यारों,
कब तक कोई बोले, अपना नकाब तो उतारो
मुखौटों के बाजार में अपनी सूरत भुला बैठे
हकीकत तो मैं ही हूँ , दावा करतें हैं हजारों
कोई रंग दिखे मदहोश हो जाते हैं
आके मुझमे ही समा जाओ ए जमाने की बहारों
क्यों कोई खुद ही को, खुद से छुपता है 'सागर'
इक हुनर तो खुद में बसा लो फिर कद्रदान हैं हजारों
-कुमार 'सागर'
वाह! बहुत खूब सर!
जवाब देंहटाएंसादर
यशवंत सर बस आप ही की दुआ है
हटाएंआपकी प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद
hum bhee aapke hee qadrdaan hain!
जवाब देंहटाएंशुक्रिया सुरेन्द्र जी
हटाएंbahut achchi lagi......
जवाब देंहटाएंतारीफ के लिए शुक्रिया मैम
हटाएंEloquent and very cutting, incisive and forceful - The message is brilliant and the style so free. Absolutely amazing!
जवाब देंहटाएंaur Nida Fazli sahab ne bhi kuchh soch kar hi kaha hoga :
"Har aadmi me hote hain dus-bees aadmi
Jab bhi kisi ko dekhna kai bar dekhna"
Behtreen Panktiyan.....
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत रचना...
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया गज़ल सागर जी....
जवाब देंहटाएंदाद कबूल करें.
कबूल है.
हटाएंगज़ब के भाव संजोये हैं
जवाब देंहटाएंवाह!!!!!बहुत सुंदर लिखा हें आपने
जवाब देंहटाएंbahut khoob!
जवाब देंहटाएंbahut khoobsurat rachana hai.
जवाब देंहटाएंbadhaai sweekaar karein!
बहुत ही बेहतरीन रचना....
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर.....